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वजूद की जंग

वजूद की जंग  ( सादिया खान सुल्तानपुरी)          रात का वह दूसरा पहर था, जब ओल्डेज होम की इमारत में एक कमरे की खिड़की से आने वाली रोशनी   , ...अंधरी रात में चिराग की मानिंद उजागर हो रही थी. यह मिस्टर ज़ोकी का कमरा था, सत्तर साल के मिस्टर ज़ोकी जो हिंदुस्तान से यूरोप हिजरत के बाद ज़ोकी से जैकी हो गये थे, अपने कमरे में तन्हा निहायत ग़मगीन बैठे सोंचो के यलगार में रवां-दंवा थे. उन का गम न तो समाजी था न ही मआशी. उन्हें गम तो सिर्फ अपने गुजरे हुए ज़माने को लेकर था. बचपन से लेकर अब तक का एक-एक लम्हा एक-एक गलती उन की आखों के सामने फिल्मी परदे पर फ्लैशबैक की तरह दौड़ रही थी. मिस्टर ज़ोकी अपने उस दौर को याद करके तड़प उठे जब उनकी शख्शियत सकाफ़ती खुदकुशी के दर पे थी. उनकी कैफियत वैसी ही होती जा रही थी जैसा कि पश्चिमी मुल्कों के बारे में कहा जाता है कि उनका बुनियादी मसला न तो मआशी है, और न ही बदलती हुई आबादी बल्कि असल मसला है, इखलाक का गुम हो जाना. मिस्टर ज़ोकी भी अपनी मज़हबी, नस्ली और इनसानी इख्लाक़ियात को फना करने के दर पे थे. इन्हें मज़हब, समाज, रिश्ते और जज़्बात इन सारी चीज़ों से कोई लगाव न था. उनकी ख्वा