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इस्लाम में खेल_कूद की अहमियत

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 इस्लाम ऐसा मज़हब है जो फ़ितरत (प्रकृति) के तमाम तक़ाज़ों और जरूरतों की तकमील (पूरा) करता है और जिंदगी के हर मोड़ पर इंसानियत की रहनुमाई (guide) की सलाहियत (ability) रखता है। इस में रहबानियात जोग और सन्यास की इजाज़त नहीं है ,यानि हर वक्त संजीदगी (गंभीरता) से इबादत में लगे रहना और दुनिया की तमाम लज़्ज़तों और नेमतों से मुँह मोड़ लेना इस्लाम की तालीम नहीं है, मतलब इस्लामी निज़ाम कोई ख़ुश्क निज़ाम नहीं है जिसमें खेल कूद और जिंदादिली की गुंजाइश न हो। ___ इस्लाम आख़िरत की क़ामयाबी को अहमियत देते हुए तमाम दुनियावी मसले में भी रियायत करता है, इसकी पाक़ीज़ा तालीम में जहाँ एक तरफ इबादत और परहेज़गारी, समाज में आपस के व्यहवार और एख़लाकियात-व-आदाब ,जैसे ख़ास मसाईल पर तवज्जो दी गई है वहीं जिस्मानी वर्जिश और मनोरंजन की भी रियायत दी गई है, ۔۔۔۔ क्योंकि अल्लाह तआला ने इंसान की फ़ितरत( मानव प्रकृति) ही कुछ ऐसी बनाई है कि वह एक ही हालत या एक ही दशा में नहीं रह सकता, उस पर मुख़्तलिफ़ हालतों (विभिन्न स्थितियों) और मुख़्तलिफ़ ख़यालात (विभिन्न विचारों) का मेला लगा रहता है।      मिट्टी से बने इंसान और नूर से बने फ़रिश्तों में यही