इस्लाम में खेल_कूद की अहमियत



 इस्लाम ऐसा मज़हब है जो फ़ितरत (प्रकृति) के तमाम तक़ाज़ों और जरूरतों की तकमील (पूरा) करता है और जिंदगी के हर मोड़ पर इंसानियत की रहनुमाई (guide) की सलाहियत (ability) रखता है। इस में रहबानियात जोग और सन्यास की इजाज़त नहीं है ,यानि हर वक्त संजीदगी (गंभीरता) से इबादत में लगे रहना और दुनिया की तमाम लज़्ज़तों और नेमतों से मुँह मोड़ लेना इस्लाम की तालीम नहीं है, मतलब इस्लामी निज़ाम कोई ख़ुश्क निज़ाम नहीं है जिसमें खेल कूद और जिंदादिली की गुंजाइश न हो। ___ इस्लाम आख़िरत की क़ामयाबी को अहमियत देते हुए तमाम दुनियावी मसले में भी रियायत करता है, इसकी पाक़ीज़ा तालीम में जहाँ एक तरफ इबादत और परहेज़गारी, समाज में आपस के व्यहवार और एख़लाकियात-व-आदाब ,जैसे ख़ास मसाईल पर तवज्जो दी गई है वहीं जिस्मानी वर्जिश और मनोरंजन की भी रियायत दी गई है, ۔۔۔۔ क्योंकि अल्लाह तआला ने इंसान की फ़ितरत( मानव प्रकृति) ही कुछ ऐसी बनाई है कि वह एक ही हालत या एक ही दशा में नहीं रह सकता, उस पर मुख़्तलिफ़ हालतों (विभिन्न स्थितियों) और मुख़्तलिफ़ ख़यालात (विभिन्न विचारों) का मेला लगा रहता है।      मिट्टी से बने इंसान और नूर से बने फ़रिश्तों में यही फर्क है कि फ़रिश्ते हमेशा एक ही काम में लगे रहते हैं, वह जरा भी गफ़लत और लापरवाही का शिकार नहीं होते,----- मगर इंसान के लिए मुमकिन ही नहीं कि वह हर वक्त संजीदगी  (गंभीरता) और वक़ार (गरिमा) बरक़रार रखे।–– हँसी मज़ाक करना, मनोरंजन करना, ख़ुश होना, उदास होना यह सब इंसानी फ़ितरत की ज़रूरत है, जिन्हें ख़त्म नहीं किया जा सकता। क्योंकि इंसान की ज़िन्दगी जिम्दारियों और हुक़ुक़-व-फ़रायज़ (अधिकार और कर्तव्य) से भरा एक सफ़र है,____ यह सफ़र दिलचस्प और मजेदार तब ही हो सकता है जब इस में हँसी-मज़ाक़, यात्रा-मनोरंजन और खेल-कूद की चाशनी भी होगी। कुछ वक़्त खेल-कूद और मनोरंजन के साथ बिताने से इंसान के दिल को सुकून और तसल्ली के साथ साथ जिम्मेदारियों और उलझनों के बोझ से राहत (संतुष्टि) मिलती है। ____ जहाँ इस्लाम इंसान को बा-मक़सद जिंदगी गुजारने की हिदायत देता है, वहीं खेल-कूद और मनोरंजन की रियायत भी देता है। लेकिन खेल-कूद और मनोरंजन की गुंजाईश के साथ साथ उस में हद भी मुक़र्रर (सीमित) कर दिया है,____ क्योंकि इस्लाम एक इंसाफ पसंद और बराबरी क़ायम रखने वाला मज़हब है, इसलिए इसके हर हुक्म में इंसाफ और बराबरी होती है, यह ना तो बिल्कुल ख़ुश्की इख़्तियार कर लेने और दुनिया की रंगीनियों लज़्ज़तों को पूरी तरह तर्क (छोड़) कर देने का हुक्म देता है और ना ही इंसान को मौज मस्ती में डूब कर ज़िन्दगी बर्बाद करने और बेकार ख्वाहिशों और लज़्ज़तों को हासिल करने में हैवानी हदों को पार करने की इजाज़त है।  इसलिए खेल कूद और मनोरंजन को इस शर्त पर जायज़ क़रार दिया गया है कि मौज मस्ती में डूब कर कर कर इंसान अपनी जिम्मेदारियों को नज़र-अंदाज़ ना करें।

लिहाज़ा आसानी पैदा करना और सख़्तियों से बचाना शरीयत के मक़सद में शामिल है इस्लामी शरीयत उन ही खेलों को खेलने की इजाज़त देता जिसमें नंगापन और जानी नुकसान या ज़हनी या जिस्मानी तौर पर नुक़सान होने का खतरा ना हो --- जैसे आदमखोर जंगली जानवर के साथ खेलना खतरे से भरा होता है,--- सिर्फ खेल-कूद और करतब के लिए अपने आप को खतरे में डालना ठीक नही।

उसी तरह शरीयत ___ हंसी मजाक़ को भी अदब के दायरे में रहकर करने की इजाज़त देता है। ऐसा हंसी मजाक़ जिस से किसी का दिल दुखे या किसी की बेइज्ज़ती हो जायज़ नहीं है। .... क्योंकि इस्लाम में हलाला-हराम, शर्म-व-हाय और इंसान के आपसी व्यहवार को ख़ास मक़ाम हासिल है।




  

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