Ibadat Ka Matlab

 इस्लाम में इबादत का मतलब
-Sadiya Khan Sultanpuri
          इस्लाम में इबादत के लिए ख़ारजी(दिखावा) रसूम(रस्म) का कोई वजूद नहीं है, न ही सूरज के निकलने का इंतजार करने की या उस की तरफ देखने की हाजत (ज़रूरत) है, न सामने आग का अलाव जलाने की ज़रुरत, न देवताओं, बुज़ुर्गों और वलियों के मुजस्समों (बुतों) को पेशेनज़र रखने की इजाज़त है, न घंटियों और नकूसों की ज़रुरत है, न लोबान और दूसरे बख़ुरात जलाने की रस्म और न ही किसी ख़ास किस्म के कपड़ों की क़ैद _____ इन तमाम बैरूनी (बाहरी) रसूम और क़यूद (क़ैद) से इस्लाम की इबादत पाक और आज़ाद है | इस्लाम में ख़ुदा की इबादत और परस्तिश(पूजा) के वक़्त बंदे के जिस्म-व-जान के अलावा किसी चीज़ की ज़रुरत नहीं, यानि इस्लाम में इबादत का वो तंग मफ़हूम नहीं जो दूसरे जगहों में पाया जाता है. इस्लाम में इबादत के लफ्ज़ी मायने अपनी आजिज़ी और दरमांदगी (दीनता) का इज़हार है और शरीयत में ख़ुदा-ए-अज्ज़ोअजल के सामने अपनी बंदगी और उबूदियत(इबादत) के नज़राने को पेश करना और उसके एहकाम को बजा लाना है. आप सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने इबादत का जो मफ़हूम दुनिया के सामने पेश किया है, इसमें सबसे पहली चीज़ दिल की नीयत और इखलास (निष्कपटता) है. इसमें किसी ख़ास काम व तर्ज़-ओ-तरीक़ा की तखसीस (विशेषता) नहीं, बल्कि इन्सान का हर वो जायज़ काम जिससे मक़सूद (आशय)-ए-ख़ुदा की ख़ुशनूदी और उसके अहकाम की इताअत (आज्ञापालन) है, वो इबादत है. _____इसी मफ़हूम को हम दूसरी इबारत में यूँ अदा कर सकते हैं कि आम तौर पर ये समझा जाता है कि इबादत सिर्फ उन चंद मख़सूस आमाल का नाम है, जिनको इन्सान ख़ुदा के लिए करता है. मसलन नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज वगैरह. लेकिन रसूल सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम की तालीम ने इस तंग दायरे को बेहद वसी (फैला) कर दिया है. दरअसल ये चारों फ़रीज़े (कर्तव्य) इबादत के सैकड़ों मायनों और उनके जज़ायात( क़िस्मों) के बेपाया दफ्तर को चार मुख्तलिफ़ बाबों (विभिन्न भागों) में तक़सीम (बाँट) कर देते हैं. जिनमें हर एक फ़रीज़ा-ए-इबादत, अफराद (व्यक्ति) और जज़ायात पर मुश्तमिल(निर्भर) है. और इन सबके बयान का मुख़्तसर (संक्षिप्त) उन्वाने बाब (शीर्षक) है. जिस तरह किसी वसी मज़मून को एक मुख़्तसर सा उन्वान दे दिया जाता है, उसी तरह ये चारों फ़रायज़ दरहकीक़त इन्सान के तमाम नेक आमाल और अच्छे कामों को चार मुख्तलिफ़ उन्वान देकर अलग-अलग तक़सीम कर देते हैं, इसलिए इन चार फरीज़ो को बजा तौर से इन्सान के अच्छे आमाल और इखलास के चार उसूल कह सकते हैं.
1- बन्दों के तमाम अच्छे काम और नेक आमाल जिनका ताल्लुक तन्हा खालिक़ और मख्लूक़ पर मुनहसिर एक मुश्तक़िल बाब है, जिसका उन्वान नमाज़ है.
2- वो तमाम अच्छे अखलाक़ और नेक काम जो हर इन्सान दूसरे के फ़ायदे और आराम के लिए करता है, वो सदक़ा और ज़कात है.
3- ख़ुदा की राह में हर क़िस्म की जिस्मानी और जानी क़ुर्बानी करना या किसी अच्छे मकसद के हुसूल के लिए तकलीफ़ और मशक्क़त झेलना और नफ़स को उस तन-परवरी और मादी ख्वाहिशों की नजात और आलूदगी (गन्दगी) से पाक़ रखना जो किसी आला मकसद की राह में हायल होती है, वो रोज़ा है.
4- इस्लामी माशरा में मिल्लते इब्राहीमी की बिरादरी और उखूव्वत (भाईचारा) की मुजस्सिम (साकार) तशकील व तंजीम मरकजी रिश्ता इत्तेहाद का क़याम और उस मरकज़ी आबादी और कसब-ए-रोज़ी(रोज़ी-रोटी) के लिए जाति (खुद) कोशिश और मेहनत के बाब का सरे-उन्वान हज है.
    इस तालीम के मुताबिक़ हर वो नेक काम जो खास खुदा की रज़ा और उसके मख्लूक़ के फ़ायदे के लिए हो, और जिसको सिर्फ खुदा की खुशनूदी के हुसूल के लिए किया जाए, वो इबादत है.  इस्लाम में खुदा के लिए किसी काम के करने का मफ़हूम ये है कि वो काम ख्वाह (चाहे) खुदा की बड़ाई और पाकी के लिए हो, या किसी इन्सान या हैवान के फ़ायदे के लिए हो.
   लेकिन उस काम को करने से; उस काम के करने वाले का मकसद नुमाइश, दिखावा, हुसूले शोहरत (मशहूर होना) या दूसरों को अहसान मंद बनाना वगैरह कोई दुनियावी और मादी गरज न हो, बल्कि महज़ खुदा की मोहब्बत खुशनूदी और रजामंदी हो,___ मिसाल के तौर पर अगर हम किसी ज़रूरतमंद इन्सान की मदद इस मक़सद से करते हैं कि लोग हमारी तारीफ़ करेंगे और दुनिया वाले हमें बड़ा नेक और दीनदार समझेंगे तो हमारा इस इरादे से किया गया नेक काम दिखावा और हुसूले (हासिल करना) शोहरत में शुमार होगा. इसके अलावा अगर हम वही नेक काम अपने किसी जाती (खुद के) फ़ायदे के लिए करें या ये सोच कर करें कि आज हम इसकी मदद कर रहे हैं तो कल वो भी हमारी मदद करेगा, गर्ज़ ये कि एक ही क़िस्म के काम के ये तमाम मुख्तलिफ़ अगराज़ (स्वार्थ) हो सकते हैं. मगर ये सारे मक़सद इज्ज़त और शोहरत की तलब और जाती फ़ायदे की हुसूल के लिए हैं. ये इस्लाम की नज़र में नेकी का काम शुमार नहीं होगा, इसके बरअक्स (विरुद्ध) अगर हम किसी की मदद सिर्फ इस नीयत से करें कि ये खुदा का हुकुम है और ऐसा करने से उस इन्सान की तकलीफ़ कम होगी और हमें खुदा की खुशनूदी हासिल होगी तो हमारा इस इरादे से किया गया काम इबादत में शुमार होगा. क़ुरान में अल्लाह पाक ने फरमाया ( सूरेह- बकरा- आयत न.02-264 ) “ऐ ईमान वालों अपनी खैरात को अहसान रखकर और जता कर बर्बाद मत करो, जिस तरह वो बर्बाद करता है, जो लोगों के दिखाने के लिए खर्च करता है और ख़ुदा और पिछले दिन पर यक़ीन नहीं रखता”.
   इस बयान के मुताबिक वो अज़ीमुशान तफ़रीका (फ़र्क) जो दीन और दुनिया के नाम से मज़हब ने क़ायम कर रखा है,  आप रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहिवसल्लम की तालीम ने उसको दफातन (सहसा) मिटा दिया है. दीन और दुनिया की हैसियत इस्लाम में दो हरीफ़ (विरोधियों) की नहीं बल्कि दो दोस्त की हो जाती है. दुनिया के वो तमाम काम जिनको दूसरे मज़हब में दुनिया के काम कहते हैं, इस्लाम की नज़र में अगर वो काम इसी तरह किए जाएँ लेकिन उनकी गरज़-व-गाइयत (मकसद) कोई माद्दी खुदगर्जी व नुमाइश न होकर सिर्फ खुदा की रज़ा और उसके अहकाम की अताअत हो तो वो दुनिया की नहीं, बल्कि दीन के काम हैं. क़ुरान में अल्लाह ताला फरमाता है- ईमान वालों! हमने तुमको जो पाक और सुथरी चीज़ें रोज़ी की हैं, उनको खाओ और ख़ुदा का शुक्र अदा करो. अगर तुम उसकी इबादत करते हो. (सूरह-बकरा-2-172)
    इस आयत से मालूम हुआ कि पाक रोज़ी ढूंढना और खाना और उस पर ख़ुदा का शुक्र अदा करना इबादत है. इक और आयत में तवक्क़ल यानि कामों के लिए कोशिश करके नतीजे को ख़ुदा के सुपुर्द कर देना भी इबादत क़रार दिया गया है. अल्लाह ने फरमाया- उसकी इबादत करो और उस पर भरोसा रखो. (सूरह-हूद-11-123).
   लिहाज़ा दीन और दुनिया के कामों में काम का तफ़रीका (अंतर) नहीं बल्कि गर्ज-व-गाइयत और नीयत का तफ़रीका है. गोया ईमान की रूह के बाद दावत-ए-मुहम्मद रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहिवसल्लम के जिस्म के दो बाजु हैं. एक इबादत और दूसरा इख्लाक़ . एक खालिक़ का हक़ और दूसरा मख्लूक़ का हक़. इन तालीमात से अंदाज़ा होगा कि इबादत का अहम् मक़सद इखलाक का तजकिया (शुद्धि) भी है और इस्लाम में इखलाक ही वह मेआर है, जिस से बाहम इंसानों में दर्जा और रुतबा का फर्क नुमायाँ होता है. इरशाद बारी तआला है- अच्छी बात कहना और माफ़ करना उस खैरात से बेहतर है जिस के पीछे अहसान जताकर लेने वाले के दिल को सदमा पहुंचाया जाए और ख़ुदा बेनियाज़ और बर्द्बार है.(सुरह-बकरा-2-263) इस आयत से मालूम हुआ कि किसी शिकस्ता दिल से उस की तशकीन-व-तशफ़ी की बात करना और किसी गुनाहगार को माफ़ करना भी इबादत है.(बुखारी शरीफ) हर नेकी का काम खैरात है. तुम्हारा किसी भाई को देख कर मुस्कुराना भी नेकी है. रास्ते से किसी तकलीफ़दा चीज़ का हटाना भी नेकी है. बेवा और ग़रीब की मदद के लिए कोशिश करने वाले का मर्तबा खुदा की राह में जिहाद करने वाले के बराबर है, और उसके बराबर है जो दिन भर नफिल, रोज़ा और रात भर नफिल नमाज़ पढता हो, बाहम लोगों के दरमियाँ से बुग्ज़-व-फसाद के असबाब को दूर करना और मोहब्बत फैलाना ऐसी इबादत है, जिसका दर्जा नमाज़, नफिल, रोज़ा और सदक़े से भी बढ़कर है.
   हदीस है कि आप सल्लल्लाहु-अलैहिवसल्लम ने एक दिन सहाबा रज़िअल्लाह-ताला से फ़रमाया “क्या मैं तुमको नफिल रोज़ा नमाज़ और सदक़े से बढ़कर दर्जे की चीज़ न बताऊँ” सहाबा ने अर्ज़ किया या रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहिवसल्लम इरशाद फरमाएं तो आप रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहिवसल्लम ने फ़रमाया “ वो आपस के ताल्लुकात का दुरुस्त करना है”
आप रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहिवसल्लम की इस तालीम से साबित होता है के इस्लाम का सही तखयल (विचार) यह है कि इंसान तालुकात के अजदहाम (भीड़) और अलायक (क्षेत्र) के हुजूम में गिरफ्तार हो कर इन में से हर एक के मुतालिक जो उसका फ़र्ज़ है, उसको बखूबी अदा करे जो शख्स इन तालुकात और फ़रायज़ के हुजूम से घबरा कर किसी गोशा आफियत को तलाश करता है, वो दुनिया के कार-जार का नामर्द और बुजदिल सिपाही है. इस्लाम अपने पीरों को जवान मर्द सिपाही देखना चाहता है जो इन सब झमेलों को उठा कर भी खुदा को न भूलें. गर्ज़ इस्लाम के नज़दीक इबादत का मतलब फ़र्ज़ को तर्क कर देना नहीं, बल्कि अदाए फ़र्ज़ है. तर्क अमल नहीं, बल्कि हुस्ने अमल है.
इबादत के नाम पर बंदा तमाम दुनिया के ऐश-व-आराम और लज्ज़तों को अपने ऊपर हराम कर के सुनसान बयाबानों में और पहाड़ों में अपनी इबादत गाहें और खानकाहें बना लेता है. और उनमें बैठ कर तमाम दुनिया की जद-ओ-जहद और सई (प्रयत्न) वा कोशिश के मैदानों से हटकर मुजिर्द (ब्रह्मचारी) और मुतक्शफाना(सन्यासी) ज़िन्दगी बसर करता है. यानि जोग इख्तियार कर लेता है, तो यह इबादत का सही तरीका नहीं है. जोग़ के अलावा रह-बानियत को भी लोग इबादत का मुक़सूद तरीका मानते हैं. ज़माना-ए-जिहालत में राह-ए-बाना इबादत आम थी. यहूद-व-नसारा ने राह-ए-बानत इबादत के नए-नए और जिस्म को सख्त तक़लीफ़ और आज़ार (नुकसान) पहुंचाने वाले तरीके इजाद किये थे. उनका ख़याल था कि बंदा जिस क़दर अपने ऊपर तक़लीफ़ उठाता है, उसी क़द्र ख़ुदा खुश होता है. और वही उस बन्दे की बड़ी इबादत शुमार होती है. यह सोचकर लोग़ अपने जिस्म को बड़ी-बड़ी तक़लीफें देते थे, और समजते थे कि जिस क़द्र जिस्म को अज़ार और तकलीफ़ ज़्यादा दिया जायगा, उसी क़द्र रूह में ज़्यादा सफाई और पाकीज़गी आएगी.__________ चुनाँचे यूनानी फल्सफियों में अश्राकियत, ईसाइयों में  रेह्बानियत और हिन्दुओं में जोग, इस एतिकाद (विश्वास) का नतीजा था. लेकिन नबुअते मोहम्मद रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहिवसल्लम ने ये राज़ आशकारा किया के इन में से कोई चीज़ इबादत नहीं है. रेह्बानियत और जोग का तरीका इख्तियार करना चाहे वो कितनी ही खुश नीयती से किया जाये फिर भी वो दीन-ए-हक़ की असली तालीम नहीं हैं. आप रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहिवसल्लम ने फ़रमाया के न तरके लजायज़ (लज्ज़त) से हक़ की लज्ज़त मिलती है, न हमारी ग़मगीनी ख़ुदा की खुशनुदी का सबब है, और न बन्दों की गैर मामूली तकलीफ़ से खुदा को आराम मिलता है, और न ही तरक-ए-दुनिया से दीन की दौलत मिलती है.______ खुदा का दीन इतना ही है, जो बन्दे की इस्तिताअत ( capacity ) के अंदर है. इरशाद-ए-बारी है “खुदा तुम्हारे साथ आसानी चाहता है सख्ती नहीं”.(सूरेह-बकरा, 2-185)
हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ि. ने जो एक निहायत आबिद वा जाहिद सहाबी थे. यह अहद कर लिया था के वो हमेशा दिन को रोज़ा रखेंगे और रात भर इबादत करेंगे. आप रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहिवसल्लम को खबर हुई तो आप स.अ.व. ने फरमाया के “ ए अब्दुल्लाह तुम पर, तुम्हारे जिस्म का भी हक़ है. तुम्हारी बीवी का भी हक़ है. महीने में तीन रोज़ा रख लेना काफी है.” (हदीस)
इसी किस्म की नसीहत आप स. अ.व. ने एक दूसरे सहाबी हज़रत उस्मान-बिन-मज़ऊन रज़ि. को फरमाई आप स.अ.व. को उनकी निस्बत मालुम हुआ के वो शब् व रोज़ इबादत में मशरूफ रहते हैं. बीवी-बच्चों से कोई ताल्लुक़ नहीं रखते. दिन को रोज़ा रखते है, और रात को सोते नहीं. आप रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहिवसल्लम ने उनको बुलाकर पूछा “क्यों उस्मान! तुम मेरे तरीके से हट गए” अर्ज़ किया “खुदा की कसम मैं नहीं हटा हूँ. मैं आप रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहिवसल्लम के तरीके का तलबगार हूँ” तो आप रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहिवसल्लम ने फरमाया मैं सोता भी हूँ और नमाज़ भी पढता हूँ, रोज़ा भी रखता हूँ और इफ्तार भी करता हूँ. और अपने अहल-व-अयाल का भी ख़याल करता हूँ, “ उस्मान खुदा से डरो के तुम्हारे अहल-व-अयाल का भी तुम पर हक़ है. तुम्हारे मेहमान का भी तुम पर हक़ है. तुम्हारी जान का भी तुम पर हक़ है. लिहाज़ा रोज़े भी रखो, इफ्तार भी करो, नमाज़ भी पढो और सोओ भी”- (हदीस)
गर्ज़ ये कि तालीम –ए-मोहम्मद रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहिवसल्लम ने इबादत को दर हकीकत दिल की पाकीज़गी, रूह की सफाई और अमल के इख़लास की गरज़-व-गायियत क़रार दिया है. लिहाज़ा इस्लाम में इबादत दर-असल खुदा और उसके बन्दों के हुकूक के अदा करने का नाम है. वो शख्स जो अपने तमाम  लोगों से अलग होकर एक गोशे में बैठ जाता है, वो दर- हकीकत अब्नाय-जींस के हुकूक से कासिर रहता है. इसलिए वो किसी तारीफ़ का मुस्तहिक़ नहीं. क्योंकि गोशा नशीनी इंसान से कम आमेज़ी, (मेलजोल) जमात से अलाहिदगी, अहल-ओ-अयाल और दोस्त-व-अहबाब के तालुकात से आज़ादी इख्लाक़ के इस्तेमाल के मवाके (अवसर) ही खो देती है. 
हदीस है के “अल्लाह-पाक के बन्दों में अल्लाह का सबसे प्यारा वो शख्स है, जिसके इख्लाक सबसे अच्छे हों”
इखलाक के वजूद के लिए बाहम (आपस में) इनसानों में तालुकात और वाबस्तागी (जुड़े रहना) का वजूद ज़रूरी है. जो रेह्बानियत तजर्द और जोगीपन में नहीं पाई जाती है, इसलिए वो लोग जो आबादी से दूर किसी जंगल या वीराने में गोशागीर होकर ज़िन्दगी बसर करते हैं, क्या वो कौम की इखलाकी निगरानी का फ़र्ज़ अनजाम देते हैं ? क्या वो गरीबों का सहारा बनते है ? क्या वो यतीमों के सरपरस्त हैं? क्या वो खल्के-इलाही की खिदमत करते हैं? क्या वो लोगों को गुमराही से बचाते हैं? ______ बिलकुल नहीं __ जबकि इखलाकी इबादतों के यही बेहतरीन मवाके हैं, और खुदा की खुशनूदी हासिल करने का रास्ता भी .
लिहाज़ा इबादत के मफहूम को इस वसअत (detail) के साथ समझा जाए, जो इस्लाम का मंशा है, और इसी वसअत के साथ उसको अदा किया जाए जो इस्लाम का मुतालबा है.- 

Comments

Popular posts from this blog

Islam Mein Aurat Aur Mard Ka Maqaam

ISLAM KYA HAI ? ISLAM KE SIDDHAHNT AUR VISHESHTAEN