Amanat Aur Dayanatdaari


अमानत और दयानतदारी
आपस के लेन-देन के मामले में जो इखलाकी जौहर मरकजी हैसियत रखता है वह दयानतदारी और अमानत है. इस का मतलब यह है कि इंसान अपने कारोबार में ईमानदार हो और जो जिस का, जितना लिया हो, उस को पूरी इमानदारी से रत्ती-रत्ती दे दे. इसी को अरबी में अमानत कहते हैं ___ख़यानत को इस तरह बयान किया गया है कि अगर एक का हक़ दूसरे के ज़िम्मे वाजिब हो, उस के अदा करने में ईमानदारी न बरतना ख़यानत. इस के अलावा अगर एक की चीज दूसरे के पास आमानत हो और वह उस में रद्दो-बदल करता है या मांगने पर वापस नहीं करता हो तो वह खुली होई ख़यानत है. हमारे रसूल सल्लललाहू अलैहिवसल्लम को नबूवत से पहले मक्का वालों की तरफ से अमीन का खिताब मिला था. क्योंकि आप स. अपने कारोबार में दयानतदार थे, और जो लोग, जो कुछ आप स. के पास रखवाते थे, वो आप स. ज्यों का त्यों वापिस करते थे.
हम ये जान लें कि अमानत का दायरा सिर्फ रूपये-पैसे, जायदाद और माली अशिया ( चीजों) तक महदूद नहीं हैं. जैसा कि आम लोग समझते हैं. बल्कि हर मआली, कानूनी और इखलाकी अमानत तक वसीअ (फैला हुआ) है. अगर किसी की कोई चीज़ आप के पास रखी है, तो उसके माँगने पर या यूँ भी उसको ज्यों का त्यों दे देना अमानत है. अगर किसी का कोई हक़ आप पर बाक़ी है तो इसको अदा करना भी अमानत है. किसी का कोई भेद आपको मालूम है तो उसको छुपाना भी अमानत है. किसी मजलिस में आप हों और कुछ बातें आप दूसरो के मुताल्लिक सुन लें वो बातें ऐसी हों जिसको दूसरों तक पहुंचाने पर फितना और फसाद बरपा हो सकता है, तो उसको मजलिस तक महदूद रखना अमानत है. इसके अलावा अगर किसी से कोई मशवरा भी लिया जाए तो उस को चाहिए कि वह अपनी राय ईमानदारी से दे .
अमानत में ख़यानत करना आप स. ने नफाक़ की निशानी बताई है, हदीसो में अमानत के बहुत से हिस्सों को एक-एक कर के गिनाया गया है और बहुत सी ऐसी बारीक़ बातें जिन को हम लोग अमानत के ख़िलाफ़ नहीं समझते वह अमानत के ख़िलाफ़ बताया गया है. लेकिन अगर हम गौर करें तो हमे खुद महसूस होगा कि एखलाक के रु से वो यक़ीनी तौर से अमानत के ख़िलाफ़ जैसे कि अगर कोई किसी काम पर नौकर है तो उसको उस नौकरी के शरायत के मुताबिक अपनी जिम्मेदारी महसूस करके उसे अंजाम दे तो वो भी अमानत है यानि जिसको जिस काम के काबिल समझ कर रखा जाये वह उसकी काबिलियत का सबूत दे और उसको पूरी ईमानदारी के साथ अंजाम दे, इस के अलावा अगर एक आदमी जो छः घंटे का नौकर हो, वह एक दो घंटे सुस्ती से चुपके-चोरी बेकार बैठा रहे या कोई आदमी खुद को किसी काम के काबिल बना कर कोई नौकरी हासिल कर ले. जब कि आम लोग इस को ख़यानत का मुर्तकिब नहीं समझते, लेकिन इस्लाम की नज़रों में वो अमीन नहीं हो सकता. इसके अलावा किसी का दोस्त हो कर ईमानदारी से दोस्ती ना निभाना भी ख़यानत है, दिल में कुछ रखना और जुबां से कुछ कहना और अमल से कुछ और साबित करना भी ख़यानत है, शौहर-बीवी का एक-दूसरे के लिए वफादार न होना भी ख़यानत की निशानी है ( हजरत नूह अ. और हजरत लूत अ. की बीवियों ने अपने मुक़द्दस शोहरों से बेवफ़ाई की, उन की बेवफ़ाई यह थी कि वह दिल से अपने शोहरों पर ईमान नहीं लाईं और काफिरों का साथ देतीं रहीं )
इस्लाम की इखलाकी शरीयत में ये सारी ख़यानतें यकसां ममनू  (मना) हैं. क़ुरान में फ़रमाया “ ऐ ईमान वालों ! अल्लाह और उसके रसूल की ख़यानत ना करो और ना आपस की अमानतों में जान-बूझ कर बदनीयती करो ”- अल्लाह और उसके रसूल के साथ ख़यानत ये है कि इक़रार कर के पूरा ना किया जाये, ईमानदरी से उन के हुक्मों की तामील ना की जाये , दीन और मिल्लत के मसले के साथ गद्दारी की  जाए, क्योंकि पूरी शरीयतएक खुदाई अमानत है. जो हम इंसानों के सुपुर्द हुई है. इसलिए हमारा फ़र्ज़ है कि हम इसके मुताबिक अपने मालिक का पूरा हक अदा करें वरना हम मुनाफ़िक़ होंगे. आप स. ने फ़रमाया कि मुनाफिकों की निशानियाँ तीन हैं- १- झूट बोलने वाला २- वादा खिलाफी करने वाला ३- अमानत में खयानत करने वाला.
लिहाज़ा अगर हमें ये यकीन हो कि एक ज़ात है कि जो हमारी चोरी-छिपे की हर हरकत से वाकिफ रहती है, तो फिर इन्सान को किसी किस्म कि खयानतकारी  जुर्रत न होगी. इस्लाम के इसी यकीन को पैदा करके खायानातों से बचा जा सकता है.   
                                   




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