Zaqat ka matlab kya hai ? Aur Zaqat ki Rahmat aur Barkat


ज़कात का मतलब क्या है ? ज़कात की रहमत और बरकत 


      ज़कात के बारे में मुख़्तसर और मुकम्मल जानकारी

             नमाज़ के बाद जिसका असल ताल्लुक ख़ुदा और बंदे के आपसी सिलसिले और राब्ते से है, वो है सदक़ा और ज़कात। ज़कात के दो मतलब होते हैं, एक का मतलब पाकीज़गी होता है और दूसरे का मतलब होता है तरक़्क़ी और नशोनुमा(progress)। 
यानी ज़कात का एक पहलू मालदारों को गुनाहों कोताहियों और मुसीबतों से पाक करता है और उनकी बुराइयों और मुसीबतों का कफ्फारह बनता है और दूसरा पहलू ये है कि जब इंसान सदक़ा और खैरात करता है तो उस माल से समाज के लाचार और गरीब लोगों की मदद होती है।


ज़कात क्या है :- ज़कात आपस में  इन्सानों के दरम्यान हमदर्दी और एक-दूसरे की मदद का नाम है। इसलिए अल्लाह ताला ने कुरान में हर जगह नमाज़ के साथ साथ ज़कात की ताकीद की है। क्योंकि नमाज़ हुकुकुल इलाही में से है‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌, यानी अल्लाह का हक़ अदा करने का नाम नमाज़ हैै और हुकुकुल इबाद यानी बंदे का हक़ अदा करने का नाम हुकुकुल इबाद है। इन दोनों  फरीज़ों का एक साथ अदा होना इस हक़ीक़त को बयान करता है कि  इस्लाम में हुकुकुल अल्लाह के साथ हुकुकुल इबाद का भी यकसा लिहाज रखा गया है, या एक जैसा दर्जा हासिल है।
नमाज़ और ज़कात के बाहमी अदायगी की एक वजह ये भी है कि इंसान की ज़िंदगी दो बुनियाद पर कायम है जिनमें से एक रूहानी और दूसरे माद्दी है। निज़ाम-ए-माद्दी ज़कात है और निज़ामे-रूहानी नमाज़ है। इसलिए कुरान पाक में जहां कहीं नमाज़ का ज़िक्र है उस के साथ ही साथ ज़कात का बयान भी किया गया है।     
अल्लाह के नबी की बेशुमार हदीस में इसकी अदायगी पर ज़ोर दिया गया है और इसकी अहमियत को उजागर किया गया है, इसमें कोताही और लापरवाही करने वाले को अज़ाब का मुस्तहिक करार दिया गया है।    

ज़कात के उसूल:- ज़कात जिसका मतलब मालदार इंसान को अपना माल ल्लाह ताला की राह में खर्च करना है, लेकिन ज़कात खर्च करने के सिलसिले में अल्लाह ताला ने ज़कात अदा करने वालों को ये अख़्तियार नहीं दिया कि  वो जिस पर चाहें इस रक़म को ख़र्च कर दें , बल्कि खुद ज़कात के मसारीफ़ मुतय्यिन(हक़ दार) फरमाए हैं । 

सूरह तौबा में इसका ज़िक्र मौजूद है। रसूल अल्लाह स.अ. व. ने ज़कात के मुतालिक़ इरशाद फरमाया कि अल्लाह ताला ने ज़कात के माल की तक़सीम(distribution) में किसी इंसान को यहाँ तक कि पैगंबर तक को कोई इख्तियार नहीं दिया, बल्कि अल्लाह ताला ने खुद ही ज़कात के मुस्तहिक़ के आठ मसारीफ़ बयान फरमाए। 

ज़कात के आठ हक़दार:-

1,2) पहला और दूसरा नंबर पर फुकरा और मिसकीन:-
फकीर और मिसकीन दोनों  ही माली जरूरयात के लिए दूसरों के माली मदद के मोहताज होते हैं। दोनों को ज़कात दिया जा सकता है। फकीर से बढ़कर मिसकीन खस्ता(ख़राब) हाल होता है, जैसे लंगड़ा-लूला, अंधा, बूढ़ा, कोढ़ी अपाहिज, और जिस्मानी मजबूर लोग जो अपनी कोशिश और जद्दोजहद के बावजूद रोज़ी का सामान जुटा नहीं पाते। 

3) तीसरे नंबर पर आते हैं वो लोग जो ज़कात जमा करने के काम पर मामूल हैं, जैसा कि मदरसों और दीनी खिदमात अंजाम देने वाले मुकरर करदा हज़रात । 

4) चौथे नंबर पर वो लोग हैं- जो इस्लाम में दाख़िल नहीं हैं। ऐसे या इस्लाम के सख़्त मुखालिफ हैं और माल दे कर उनकी मुखालिफत खत्म की जा सकती है। या ऐसे लोगों को दिया जा सकता है जिनके बारे में अंदाजा हो कि इनकी माली मदद करने से ये इस्लाम के दायरे में आ सकते हैं। या वो लोग जो नये-नये मुसलमान हुए हो और उनकी मुनासिब मदद न किए जाने पर माल की तंगी और कमजोरी की वजह पर फिर से कुफ़र की तरफ पलट जाने का डर हो । ऐसे लोगों को ज़कात देकर इनको इस्लाम का फर्माबरदार बनाया जाए। 

5) पांचवें नंबर पर आता है गुलाम को आज़ाद करना - अब गुलामी का दौर तो नहीं रहा मगर इस वक़्त ऐसे मुसलमान नवजवान जो बिला वजह फर्जी इल्ज़ामात के तहद हुक्मरानों की जानिब से गिरफ्तार करके कैदखानों में डाल दिए गए हैं। उन्हें रिहाई दिलाने और मुकदमा बाज़ी के ज़रिये उन्हें क़ैद से आज़ाद कराने के लिए ज़कात दी जा सकती है। 

6) छठे नम्बर पर हैं क़र्ज़दार - कर्जदार को कर्ज़ के बोझ से आज़ाद कराना - चाहे उसने वो कर्ज़ किसी भी जायज़ मकसद के लिए लिया हो। मिसाल के तौर पर बच्चों की शादी या तालीम के लिए या कारोबार के लिए, इलाज के लिए या सर छुपाने के वास्ते घर बनाने के लिए। या किसी भी जायज़ मक़सद के लिए अगर किसी से कर्ज़ लिया और वो उस को अदा करने के काबिल नहीं है तो उसकी अदायगी के लिए ज़कात दी जा सकती है। 

7) सातवाँ है फी-सबीलिल्लाह - फी-सबीलिल्लाह का मतलब है, राहे खुदा में खर्च करना । जैसे अगर कोई मुजाहिद जिहाद के लिए जाना चाहता है लेकिन उसके पास सवारी और असलहा वगैरह नहीं है तो उसे माले- ज़कात से ज़कात दिया जा सकता है। या कोई हज को जाना चाहता है और उसके पास माल नहीं है  उसको भी ज़कात दी जा सकती है। मगर उसे हज के लिए सवाल करना जायज़ नहीं है। या तालिब-ए-इल्म जो इलमे-दीन पढ़ना चाहता है, उसे भी ज़कात देकर मदद की जा सकती है। 

8) ज़कात का आठवाँ हक़दार मुसाफिर हैं - अगर कोई इंसान ख़्वाह घर में मालदार हो मगर सफर में तंगदस्त हो जाए और माली मदद का मोहताज हो जाए तो ज़कात से इसकी माली मदद की जा सकती है।
  
ज़क़ात के फायदे-
अल्लाह ताला ने  ज़क़ात के हुक्म के पीछे ये फिलसफ़ाकार फ़रमाया है कि ज़क़ात के जरिए पूरे समाज को आर्थिक संतुलन और सामाजिक ढांचा मुहैय्या करे। जिससे मोहताजी की वजह से माशरे में फैलने वाली इख़्लाकी बदहाली और इख़्लाकी गिरावट, तहज़ीबी पस्मान्दगी और इल्मी इख्लास , ज़रायम की रोकथाम हो सके। लिहाजा अल्लाह ताला ने अपने मोमिन बंदों की इन बुराइयों से हिफाज़त का और दौलत की गैर मसावी तक़सीम से पैदा होने वाली तमाम मसायल का कामयाब  हल फ़रमाया है कि हर मालदार इंसान सालाना बुनियादों पर अपने जमा किये गए माल पर ढाई फीसद के हिसाब से ज़क़ात निकाल कर गरीबों और मोहताजों में तक़सीम कर दे। ताकि इस माल से मुआशरे में फकीर मिस्कीन की गरीबी और मोहताजी दूर हो सके। और वो भीख मांगने की शर्मिंदगी के साथ साथ चोरी डाके और अगवा जैसी आर्थिक अपराधों से बच सकें। चूँकि अल्लाह ताला की नज़रों में  गरीब और अमीर यकसां हैं इसलिए उसने ज़क़ात दौलतमंदों के लिए फ़र्ज़ और गरीबों के लिए उनका हक क़रार देते हुए मालदारों से ख़िताब फ़रमाया कि "तुम अपनी खैरात को अहसान धर कर या ताना देकर बर्बाद मत करो। और दूसरी तरफ गरीबों को ख़िताब फ़रमाया कि बेहतरीन तक़वा किनात पसंदी खुद्दारी और भीख न मांगना है।
गर्ज़ ये कि अल्लाह ताला ने किसी एक तबके की इस्लाह (करेक्शन) को फ़र्ज़ न क़रार देते हुए अमीर और गरीब दोनों तबकों को बराबर बाँट दिया है और दोनों तबकों को अपने अपने इख़लाक़ की इस्लाह का मौक़ा फ़राहम किया है।                           


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